भारतीय ट्रेकिंग क्षेत्रों में संकटग्रस्त प्रजातियों का संरक्षण

भारतीय ट्रेकिंग क्षेत्रों में संकटग्रस्त प्रजातियों का संरक्षण

विषय सूची

1. परिचय और महत्त्व

भारतीय ट्रेकिंग क्षेत्रों में संकटग्रस्त प्रजातियों का संरक्षण एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है, जो न केवल जैव विविधता को बनाए रखने में सहायक है, बल्कि स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र की स्थिरता के लिए भी आवश्यक है। भारत के ट्रेकिंग क्षेत्र जैसे हिमालय, पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट तथा अरावली पर्वतमाला न केवल रोमांच प्रेमियों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं, बल्कि यहाँ कई दुर्लभ और संकटग्रस्त वन्यजीव प्रजातियाँ भी निवास करती हैं। इन प्रजातियों का संरक्षण इसलिए जरूरी है क्योंकि ये पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने में अहम् भूमिका निभाती हैं। ट्रेकिंग गतिविधियों से जुड़े लोगों को यह समझना चाहिए कि उनका व्यवहार इन संवेदनशील क्षेत्रों पर प्रत्यक्ष प्रभाव डाल सकता है। जैव विविधता और ट्रेकिंग के बीच घनिष्ठ संबंध है; यदि हम इन क्षेत्रों की जैव विविधता की रक्षा करते हैं, तो भविष्य की पीढ़ियों को भी प्रकृति की सुंदरता देखने का अवसर मिलेगा। इसलिए, पर्यावरणीय जागरूकता और जिम्मेदार पर्यटन का पालन करना हम सबकी जिम्मेदारी बनती है।

2. प्रमुख संकटग्रस्त प्रजातियाँ और उनकी स्थिति

भारतीय ट्रेकिंग क्षेत्रों में जैव विविधता की समृद्धता के साथ-साथ कई संकटग्रस्त वन्यजीव और पौधों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। हिमालय, पश्चिमी घाट और उत्तर पूर्व भारत ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ पर्यावरणीय चुनौतियों के कारण अनेक प्रजातियाँ संकट में हैं। इन क्षेत्रों की प्रमुख संकटग्रस्त प्रजातियों की सूची और उनकी संरक्षण स्थिति नीचे सारणीबद्ध की गई है:

क्षेत्र प्रजाति IUCN स्थिति संरक्षण प्रयास
हिमालय स्नो लेपर्ड (Panthera uncia) अत्यंत संकटग्रस्त स्थानीय समुदायों की भागीदारी, संरक्षित क्षेत्र घोषित
हिमालय रेड पांडा (Ailurus fulgens) संकटग्रस्त गश्ती दल, अवैध शिकार रोकथाम
पश्चिमी घाट निलगिरी तहर (Nilgiritragus hylocrius) अत्यंत संकटग्रस्त संरक्षित पार्क, जागरूकता अभियान
उत्तर पूर्व भारत हूलॉक गिब्बन (Hoolock hoolock) संकटग्रस्त वन पुनर्स्थापन, अनुसंधान कार्यक्रम

वनस्पतियों की संकटग्रस्त प्रजातियाँ

इन क्षेत्रों में सिर्फ वन्यजीव ही नहीं, बल्कि कई महत्वपूर्ण औषधीय व अन्य उपयोगी पौधों की प्रजातियाँ भी खतरे में हैं। उदाहरण के लिए:

क्षेत्र पौधे का नाम IUCN स्थिति
हिमालय यार्सा गुंबा (Ophiocordyceps sinensis) संकटग्रस्त
पश्चिमी घाट कोलाप्पू (Pterocarpus santalinus) अत्यंत संकटग्रस्त

पर्यावरणीय खतरों का प्रभाव

इन प्रजातियों को निवास स्थान का क्षरण, अवैध शिकार, जलवायु परिवर्तन और अनियंत्रित पर्यटन जैसी समस्याओं से गंभीर खतरा है। स्थानीय प्रशासन और समुदायों द्वारा मिलकर संरक्षण उपाय लागू किए जा रहे हैं, लेकिन सतत प्रयास और व्यापक जनभागीदारी जरूरी है। ट्रेकिंग के दौरान इन संवेदनशील क्षेत्रों में सतर्कता बरतना तथा नियमानुसार व्यवहार करना सभी पर्यटकों की जिम्मेदारी है ताकि इन अमूल्य प्रजातियों को भविष्य के लिए सुरक्षित रखा जा सके।

संरक्षण को लेकर स्थानीय समुदायों की भूमिका

3. संरक्षण को लेकर स्थानीय समुदायों की भूमिका

स्थानीय निवासियों की सक्रिय भागीदारी

भारतीय ट्रेकिंग क्षेत्रों में संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण में स्थानीय निवासियों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। पर्वतीय गांवों, जंगलों के किनारे बसे आदिवासी समुदाय और अन्य निवासी अपने आसपास के प्राकृतिक संसाधनों से गहराई से जुड़े होते हैं। वे न केवल पर्यावरण को बेहतर समझते हैं, बल्कि वनस्पति एवं जीव-जंतुओं के व्यवहार संबंधी पारंपरिक ज्ञान भी रखते हैं।

पारंपरिक ज्ञान का महत्व

अनेक बार यह देखा गया है कि स्थानीय समुदायों द्वारा संचित पारंपरिक ज्ञान संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण में निर्णायक साबित होता है। उदाहरण स्वरूप, हिमालय क्षेत्र के निवासी औषधीय पौधों, जंगली जानवरों की गतिविधियों तथा आवास स्थानों की सुरक्षा में सहायक जानकारी रखते हैं। उनकी यह समझ आधुनिक वैज्ञानिक उपायों के साथ मिलकर संरक्षण के प्रयासों को और अधिक कारगर बनाती है।

साझेदारी और जिम्मेदारी

संरक्षण कार्यक्रमों में जब स्थानीय समुदायों को शामिल किया जाता है, तो वे स्वयं को उस प्रक्रिया का अभिन्न अंग मानते हैं। इससे अवैध शिकार, वनों की कटाई या पर्यावरणीय क्षरण जैसी समस्याओं पर प्रभावी रोक लगाई जा सकती है। इसके अतिरिक्त, राज्य सरकारें और गैर-सरकारी संगठन इन्हें जागरूकता अभियान, प्रशिक्षण एवं वैकल्पिक आजीविका उपलब्ध कराकर सशक्त बना सकते हैं। ऐसी सहभागिता से न केवल संकटग्रस्त प्रजातियां सुरक्षित रहती हैं, बल्कि स्थानीय लोगों का जीवनस्तर भी ऊपर उठता है।

4. ट्रेकर्स के लिए सुरक्षा और सतत व्यवहार

सुरक्षित ट्रेकिंग के मूल तत्व

भारतीय ट्रेकिंग क्षेत्रों में संकटग्रस्त प्रजातियों का संरक्षण केवल सरकार या वन विभाग की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि हर ट्रेकर को भी अपनी भूमिका समझनी चाहिए। सुरक्षित ट्रेकिंग के लिए निम्नलिखित बातों का पालन करें:

  • हमेशा चिन्हित मार्गों पर ही चलें, ताकि वन्य जीवों के प्राकृतिक आवास को नुकसान न पहुंचे।
  • वन्य जीवों से एक सुरक्षित दूरी बनाए रखें और कभी भी उन्हें भोजन न दें।
  • किसी भी संदिग्ध या आपात स्थिति में स्थानीय गाइड या अधिकारियों को तुरंत सूचित करें।

संवेदनशील और पर्यावरण-सम्मत व्यवहार

ट्रेकर्स को न केवल स्वयं की सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए, बल्कि वे जिस क्षेत्र में जा रहे हैं वहां के पर्यावरण और वन्य जीवों के प्रति संवेदनशील रहना भी जरूरी है:

  • तेज आवाज़ या प्रकाश का प्रयोग न करें, जिससे जानवर भयभीत हो सकते हैं।
  • फूल, पौधों या जैव विविधता से छेड़छाड़ न करें।

अपशिष्ट प्रबंधन: प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा में योगदान

अपशिष्ट प्रकार सही प्रबंधन विधि
प्लास्टिक/रैपर अपने साथ वापस लाएं एवं निर्धारित डस्टबिन में डालें
खाद्य अपशिष्ट पॉलीथीन बैग में पैक करके वापसी पर निष्पादित करें
जैविक कचरा (पत्ते आदि) जहां संभव हो वहीं छोड़ें, लेकिन गैर-प्राकृतिक सामग्री को दूर रखें

जल स्रोतों की सुरक्षा

भारत के पर्वतीय और वन क्षेत्रों में जल स्रोत कई संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए जीवनरेखा हैं। इनकी रक्षा हेतु:

  • नदियों/झरनों में साबुन, शैम्पू या रसायन का उपयोग न करें।
  • कूड़ा-कचरा पानी में न फेंके।
स्थानीय समुदायों व संस्कृति का सम्मान

ट्रेकिंग करते समय स्थानीय रीति-रिवाज, जनजातीय ज्ञान और संस्कृति का सम्मान करना भी जरूरी है; इससे संरक्षण प्रयासों को बल मिलता है और पर्यावरणीय संतुलन बना रहता है। सभी ट्रेकर्स को यह समझना चाहिए कि उनका हर कदम संकटग्रस्त प्रजातियों की रक्षा में योगदान कर सकता है।

5. संरक्षण के लिए सरकारी और गैर-सरकारी पहलकदमी

सरकारी प्रयास

भारतीय सरकार संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण हेतु कई योजनाएँ चला रही है। वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट, 1972 इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कानून है, जो ट्रेकिंग क्षेत्रों सहित राष्ट्रीय उद्यानों, वन्यजीव अभ्यारण्यों और संरक्षित क्षेत्रों में वन्यजीवों की रक्षा करता है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर टाइगर रिजर्व, बायोस्फीयर रिजर्व और कम्युनिटी कंजर्वेशन एरिया जैसी परियोजनाएँ संचालित करती हैं। इन पहलों का उद्देश्य जैव विविधता को बढ़ावा देना और पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित रखना है।

राज्य सरकारों की भूमिका

हर राज्य अपनी भौगोलिक आवश्यकताओं के अनुसार संरक्षण नीतियाँ लागू करता है। जैसे हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड एवं सिक्किम में स्थानीय स्तर पर ‘वन पंचायत’ तथा ‘ईको डेवेलपमेंट कमेटी’ जैसे मॉडल सफल रहे हैं। ये समितियाँ स्थानीय लोगों को शामिल कर संकटग्रस्त प्रजातियों की निगरानी और सुरक्षा सुनिश्चित करती हैं।

NGO और अन्य संगठनों के योगदान

भारत में WWF इंडिया, वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (WTI), नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन (NCF) जैसे गैर-सरकारी संगठन सक्रिय रूप से जागरूकता अभियान चलाते हैं। वे ग्रामीण समुदायों के साथ मिलकर प्रशिक्षण, डेटा संग्रहण और वैकल्पिक आजीविका कार्यक्रम चलाते हैं ताकि स्थानीय लोग अवैध शिकार या जंगल कटाई से दूर रहें।

जन-जागरुकता अभियान

संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण के लिए जन-जागरुकता अत्यंत आवश्यक है। ‘स्पर्श गंगा अभियान’, ‘सेव द स्नो लेपर्ड’ तथा ‘माई विलेज माय फॉरेस्ट’ जैसी पहलें युवाओं और पर्यटकों को शिक्षित करने का कार्य करती हैं। सोशल मीडिया अभियानों, स्कूल वर्कशॉप्स, और ईको-ट्रेकिंग गाइड्स के माध्यम से भी जागरूकता फैलाई जाती है।

स्थानीय समुदायों की भागीदारी

संरक्षण कार्यों में स्थानीय आदिवासी एवं ग्रामीण समुदायों की भागीदारी अनिवार्य मानी जाती है। इन्हें सरकारी योजनाओं व NGO प्रोग्राम्स में प्रशिक्षित कर ‘ग्रीन गार्ड्स’ या ‘इको-वॉलंटियर्स’ बनाया जाता है, जो संकटग्रस्त प्रजातियों की रक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सामुदायिक सहभागिता से संरक्षण कार्य अधिक प्रभावी बनता है तथा पारंपरिक ज्ञान का उपयोग भी हो पाता है।

6. चुनौतियाँ और दूरगामी समाधान

प्रमुख चुनौतियाँ

अतिक्रमण

भारतीय ट्रेकिंग क्षेत्रों में अतिक्रमण एक गंभीर समस्या बन चुकी है। ट्रेकिंग के बढ़ते आकर्षण के कारण मानव आबादी, अस्थायी शिविर, होटल और अन्य निर्माण कार्य जंगलों एवं पारिस्थितिक तंत्र पर दबाव डाल रहे हैं। इससे संकटग्रस्त प्रजातियों का प्राकृतिक आवास सिमट रहा है, जिससे उनकी जीवनशैली और प्रजनन पर असर पड़ता है।

प्रदूषण

ट्रेकिंग के दौरान प्लास्टिक कचरा, भोजन के पैकेट्स, पानी की बोतलें और अन्य अपशिष्ट जंगलों में छोड़े जाते हैं। इससे न केवल जैव विविधता प्रभावित होती है, बल्कि मिट्टी, जल स्रोत और वन्यजीव भी खतरे में पड़ जाते हैं। स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिए यह प्रदूषण घातक सिद्ध हो सकता है।

जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भारतीय पर्वतीय क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। तापमान में वृद्धि, बर्फबारी के पैटर्न में बदलाव और मानसून की अनिश्चितता जैसे कारक संकटग्रस्त प्रजातियों की जीवन प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। कई प्रजातियाँ अपने पारंपरिक आवास छोड़ने या विलुप्त होने को मजबूर हो रही हैं।

दूरगामी समाधान

स्थायी पर्यटन नीति

राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन को मिलकर ऐसी पर्यटन नीतियाँ बनानी चाहिए जो पर्यावरण के साथ सामंजस्य बैठाएं। सीमित संख्या में ट्रेकर्स को अनुमति देना, पर्यावरण-अनुकूल ट्रेकिंग गाइडलाइन लागू करना और स्थानीय समुदायों को शामिल करना आवश्यक है।

सख्त कचरा प्रबंधन

हर ट्रेकिंग समूह को अपना कचरा वापस लाने के लिए बाध्य किया जाए तथा प्लास्टिक और अन्य अपशिष्ट पर प्रतिबंध लगाया जाए। ट्रेकिंग मार्गों पर कचरा संग्रहण केंद्र बनाए जाएँ और स्थानीय युवाओं को इसके प्रबंधन में शामिल किया जाए।

शिक्षा एवं जागरूकता

स्थानीय लोगों, ट्रेकर्स और गाइड्स को संकटग्रस्त प्रजातियों एवं उनके संरक्षण के प्रति शिक्षित करना जरूरी है। स्कूलों, कॉलेजों व ग्राम सभाओं में नियमित जागरूकता अभियान चलाए जाएँ ताकि सभी लोग प्रकृति-संरक्षण की जिम्मेदारी समझें।

जलवायु अनुकूल रणनीति

जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु दीर्घकालीन योजनाएँ बनाई जाएँ—जैसे कि बायोडायवर्सिटी मॉनिटरिंग सिस्टम, वनों का पुनर्निर्माण (री-फॉरेस्टेशन), जल स्रोतों का संरक्षण और पारंपरिक ज्ञान का उपयोग किया जाए। वैज्ञानिक संस्थानों व स्थानीय प्रशासन के सहयोग से इन रणनीतियों को लागू किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

भारतीय ट्रेकिंग क्षेत्रों में संकटग्रस्त प्रजातियों का संरक्षण केवल सरकारी प्रयासों से संभव नहीं है; इसमें हर नागरिक, ट्रेकर, गाइड एवं स्थानीय समुदाय की भागीदारी जरूरी है। चुनौतियाँ बड़ी हैं, लेकिन यदि हम मिलकर दूरगामी समाधानों पर अमल करें तो आने वाली पीढ़ियों के लिए जैव विविधता संपन्न भारत सुनिश्चित कर सकते हैं।